20141019

मूमल संपादकीय : तथाकथित कला समीक्षक

मूमल संपादकीय
तथाकथित कला समीक्षक
किसी भी चीज का वास्तविक स्थिति का पता तब ही चल पाता है जब उसका उचित मूल्यांकन हो और किसी भी चीज की समाज में उपयोगिता उसे पसंद किए जाने के स्तर और मांग पर निर्भर करती है। ठीक इसी तरह कला है, यह मूलरूप से किसी कलाकार की सोच और परिकल्पना पर आधारित होती है। इसकी वास्तविक समीक्षा और मूल्य समाज से उसके जुड़ाव की स्थिति को स्पस्ट करती है।
कला समीक्षकों की बेहद कमी 
अफसोस की बात है कि कला समीक्षा का महत्व प्रबल होने के बाद भी आज देश में कला समीक्षकों की बेहद कमी है। अंगुलियों पर गिने जाने लायक कुछ एक कला समीक्षक ही वास्तव में समीक्षक कहे जा सकते हैं।
यूं तो किसी अखबार के पेज थ्री या पुल आउट पर किसी शहर की सीमा तक सिमटे संवाददाता की न्यूज रिपोर्ट या किसी तथाकथित समीक्षक द्वारा समीक्षा के नाम की शब्दों की बाजीगरी के साथ की गई स्तुति दैनिक पत्रों में प्रकाशित होती रहती हैं। प्रश्र है कि उनमें होता क्या है? उन रिपोर्ट और कथित समीक्षाओं की वास्तविक स्थिति क्या होती है? यह विचार करने का विषय है।
रिपोर्ट का स्तर
पहले कला के समाचारों या कहिए रिपोटर्स पर चर्चा करेंगे... अखबारों में प्राय: सुविधा के अनुसार किसी भी संवाददाता को कला क्षेत्र की रिपोर्टिंग पर लगा दिया जाता है। दुर्भाग्य की बात है कि प्राय: कला क्षेत्र के संवाददाता के रूप में पत्रकारिता के क्षेत्र में आए उन नौसीखियों को नियुक्ति किया जाता है, जिन्हें कोई महत्वपूर्ण बीट नहीं दी जा सकती। जाहिर है कला और संस्कृति की बीट को पुलिस, प्रशासन और राजनीति जैसी हॉट बीट्स के रिपोटर्स की तुलना में कला क्षेत्र का संवाददाता तुच्छ माना जाता है। इस पर भी स्थिति उस वक्त और दयनीय हो जाती है जब कला को कवर करने वाले संवाददाता को कला क्षेत्र का जरूरी ज्ञान भी नहीं होता। ऐसे में वह लगभग पूरी तरह कलाकार द्वारा दी गई जानकारी और प्रेसनोट पर निर्भर होता है। अब संबंधित कला या कृति के बारे में दी जाने वाली जानकारी और शब्दों का चयन तक स्वंय कलाकार द्वारा रचित हो तो वह रिपोर्ट क्या होगी? इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। हालांकि संवाददाता अपनी समझ के अनुसार किसी कलाकार से पंगा लिए बिना अपनी नौकरी का दायित्व पूरा करता है, लेकिन ऐसे में रिपोर्ट का स्तर बस यहीं तक सीमित रहता है।
अक्सर प्रायोजित 
अब बात करेंगे समीक्षा की... कथित समीक्षाएं अक्सर प्रायोजित ही होती है। कभी स्वयं कलाकारों और तथाकथित समीक्षकों के आपसी व्यवहार के चलते तो कभी कलाकार और समीक्षक के निजी हितों पर आधारित। क्या ऐसी समीक्षा किसी भी कला की सही व ईमानदारी भरी स्थिति जाहिर करने में सक्षम हो पाती है? ऐसी समीक्षाओं के चलते अक्सर कला जगत की युवा पीढ़ी दिग्भ्रमित होती है, कलाप्रमियों की कला दृष्टि बाधित होती है और भावी कलाकारों को कला साधना के स्थान पर अपनी कला को विख्यात करने के गलत तरीके सिखाती है। इन समीक्षकों के चक्रव्यूह से कला जगत को मुक्त कैसे कराया जाए यह विचारणीय है। युवा कलाकारों से यह उम्मीद की जा सकती है कि स्तुतिमय समीक्षा को नजर अंदाज करते हुए अपने कला संज्ञान से सचाई को समझेंगे।