20090418

नही बदला नजरिया विदेशिया का

पर्यटन की दुनियां में हो रही हलचलों पर नजर दौड़ाते हुए अचानक नजर एक पुरानी फिल्म पर ठहर गई। यह फिल्म जयपुर आए किसी विदेशी पर्यटक जैम्स पैट्रिक ने सन् 1932 में तैयार की थी। इस ब्लेक एडं व्हाट फिल्म का नाम रखा गया कलरफुल जयपुर 1932, इस फिल्म का वीडियो यूट्यूब की गैलेरी में उपलब्ध है।

लगभग आठ मिनट की इस फिल्म में वैसे तो आजादी से भी 15 साल पुराना जयपुर देखकर रोमांचित हुआ जा सकता है, लेकिन जो सबसे ज्यादा महसूस होने वाली बात लगी वह थी, जयपुर को देखने का विदेशी नजरिया। यह एक चौंकाने वाली बात है कि आज 75 साल बाद भी विदेशी पर्यटक के जयपुर दर्शन के नजरिए में कोई अंतर नहीं आया है। फिल्म में सन् 1932 में भी वही सब शूट किया गया है, जो विदेशी पर्यटकों द्वारा अब 2009 में भी किया जा रहा है।

फिल्म की शुरूआत त्रिपोलिया बाजार के नजारों से होती है। सड़क पर चल रहे यातायात में सामान से लदी बैलगाडिय़ां पर्यटक का मुख्य विषय है। सड़क पर काम करते सफाईकर्मी, बाजार की दुकानों के ऊपर कंगूरों पर बैठे बंदर, टीन शैड पर जा चढ़ी बकरियां, सड़क से गुजरती महिलाओं के परिधान, पुरुषों के साफे और टोपियां, सड़क लगी ताजा सब्जी की दुकानें, उनके आसपास व सड़क पर मंडराते आवारा पशु, कबूतरों के लिए डाले गए दानों को चुगते पक्षी, बेरोकटोक विचरते मोर, बंदरों के आगे खाने का सामान डालकर उनकी झीना-झपटी के दृश्य, हाथी पर सवारी करते साथी पर्यटकों का फिल्मांकन, मदारी, भिखारी और कुल मिलाकर 1932 में भी वही सब कुछ शूट किया गया है जो आज के पर्यटक भी शूट कर रहे हैं।

फिल्म को देखने का मौका मिले तो चूकिएगा मत। कुछ उदाहरण इस बात के भी हैं कि न जयपुर की व्यवस्था में ज्यादा अंतर आया है और न ही नागरिकों और दुकानदारों के रवैये में। सांगानेरी गेट पर यातायात संचालित करने वाले कर्मचारी तैनात हैं, लेकिन एक अपनी ड्यूटी का निर्धारित स्थान छोड़कर आपस में बातचीत करने के लिए दूसरे के पास आया हुआ है। यातायात का दबाव आज की तुलना में काफी कम है, फिर भी वाहनों की रेलपेल है। तेज गति से दौड़ती ऊंट गाड़ी की एक उतनी तेजी से आ रही मोटर से हुई जोरदार भिड़ंत का दृश्य यातायात व्यवस्था की पोल यहां भी खोलता लग रहा है। सड़क पर जगह घेर कर सब्जी और अनाज की दुकानें लगाने वाले, पक्की दुकान वालों द्वारा सामने सामान रखकर पैदल चलने वालों का हक मारने की प्रवृति सन् 1932 की इस फिल्म में भी नजर आती है।

आमेर के दृश्यों में केसर क्यारी की टूटी-फूटी मुंडेर साफ नजर आती है, जो उस समय में रखरखाव की जिम्मेदारी वहन करने वाले राज कर्मचारियों का रवैया बताती है।जयपुर के मदारियों का व्यंग आज की तुलना में कहीं ज्यादा तीखा नजर आता है। एक बंदरिया को केप और कसे हुए कपड़े पहना कर जमीन पर उसी मुद्रा में लेटने की ट्रेनिंग दी गई लगती है, जिस मुद्रा में विदेशी महिला पर्यटक समुद्र के किनारे पाई जाती हैं। कुता गाड़ी में जिस बंदर परिवार को सैर सपाटे के लिए निकला बताया गया है उसका पहनावा भी बहुत कुछ ऐसा कहता लगता है,जिसका यहां उल्लेख संभव नहीं है।

आप फिल्म देखते वक्त अगर एक बंदर की टोपी, उस पर लगे चिन्ह और चश्में को गौर से देखें तो आजादी से पहले की राजनीति का जायजा ले सकते हैं, खासकर इस टोपी वाले बंदर के अलावा शेष सभी बंदर अंग्रेजी कैप और टीर्शट वाले रखे गए हैं, पता नहीं क्यों? जो भी हो, मदारियों की निडऱता और व्यंग की धार आज के अनेक तथाकथितों के लिए भी दर्शनीय है। इसे देखने के लिए यूट्यूब तो है ही, नहीं हाथ आए तो गूगल के वेव सर्च पर जाकर कलरफुल जयपुर लिखिए और क्लिक करने पर सबसे ऊपर इसे ही पाएंगे।फिर भी बात नहीं बने तो ग्लोबल इमेज वक्र्स । कॉम पर भी इसे देखा जा सकता है। और इसके बाद भी नहीं मिले तो मूमल तो आपकी सेवा में है ही।

4 टिप्‍पणियां:

नीरज गोस्वामी ने कहा…

बहुत काम की बात बताई आपने...जरूर देखेंगे...जयपुर चारदीवारी में अभी भी वैसा ही है जैसा मैं पिछले चालीस सालों से देखता आया हूँ लेकिन उसके बाहर का जयपुर बहुत बदल गया है...
नीरज

नीरज गोस्वामी ने कहा…

मैंने फिल्म देख ली है...बहुत जोरदार है...बहुत माने बहुत ही अधिक जोरदार...शुक्रिया आपका.
नीरज

Anil Kumar ने कहा…

"हम नहीं सुधरेंगे" शीर्षक यहाँ पर फिट बैठता है!

बेनामी ने कहा…

kya baat hai ji